आरंभ में कवि एक कल्पित मंज़िल (क्षितिज) को यथार्थ समझ बैठा है जो मरीचिका की भांति यह कल्पित क्षितिज वास्तविकता से दूर ले जाता है।
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विदाई के एक दिन पूर्व अंतिम बार आनंद और शारदा नर्मदा के तट पर बैठे थे वही संध्या का समय था, सूर्य अपनी प्रखरता को त्याग सौम्यता के साथ कल्पित क्षितिज के उस तरफ प्रस्थान कर रहा था, चारों तरफ मौन था, नि:स्तब्धता थी, कोई स्वर था तो नर्मदा की लहरों का स्वर था।
3.
विदाई के एक दिन पूर्व अंतिम बार आनंद और शारदा नर्मदा के तट पर बैठे थे वही संध्या का समय था, सूर्य अपनी प्रखरता को त्याग सौम्यता के साथ कल्पित क्षितिज के उस तरफ प्रस्थान कर रहा था, चारों तरफ मौन था, नि: स्तब्धता थी, कोई स्वर था तो नर्मदा की लहरों का स्वर था।